सनातन संस्कृति में चार आश्रम ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास की व्यवस्था है, जो मनुष्य की अवस्था के अनुसार विभाजित है।
दूसरे आश्रमों का पोषक
गृहस्थ आश्रय को समाज की रीढ़ कहा जाता है। गृहस्थ ही इस सृष्टि को चलाता है। दूसरे आश्रम में रहनेवाले लोगों का पोषण भी करता है। हर आश्रम के लिए 25 साल की सीमा तय है। इस तरह एक व्यक्ति की आयु 100 साल मानी गई है। इन चारों आश्रमों में गृहस्थ को सबसे महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है।
गृहस्थ आश्रम दुर्बल इंद्रियों से संभव नहीं
मनुस्मृति में स्पष्ट लिखा गया है कि स्वर्ग की इच्छावाले को और इस लोक में सुख चाहनेवाले को यत्न कर गृहस्थ आश्रम का पालन करना चाहिए, जो दुर्बल इंद्रियों से संभव नहीं है।
यथा वायुं समाश्रित्य वर्तन्ते सर्वजन्तवः ।
तथा गृहस्थं आश्रित्य वर्तन्ते सर्व आश्रमाः।।
अर्थात जैसे वायु से सभी जीव-जंतु का वर्तमान सिद्ध होता है यानी जीवित रहते हैं वैसे ही गृहस्थ के आश्रय से सब आश्रम (ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और संन्यासी ) का निर्वाह होता है।
यस्मात्रयो~प्याश्रमिणो ज्ञानेनान्नेन चान्वहम।
गृहस्थेनैव धार्यन्ते तस्माज्ज्येषेठाश्रमो गृही ।।
अर्थात तीनों आश्रमों के लोग गृहस्थों के द्वारा नित्य वेदार्थज्ञान की चर्चा और अन्नदान से चलते हैं। इस कारण सभी आश्रमों में गृहस्थाश्रम बड़ा है।
: - तरुण कुमार कंचन
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