माता शाकुम्भरी देवी |
करुणामयी माता शाकुम्भरी देवी
सनातनी मान्यताओं के अनुसार कुल नौ
देवियां हैं जिन्होंने इस पृथ्वी को सुकुन का ग्रह बनाया है। यहां मानव से लेकर
छोटे-बड़े जीव-जन्तुओं का पालन होता है। सभी मुदित रहते हैं। जब-जब पृथ्वी पर किसी
प्रकार की आपदा आई है तब-तब माता विभिन्न रूपों में आकर लोगों को त्राण दिया है।
जब हम नौ दैवीय यात्रा की बात करते हैं तो सबसे पहले माता वैष्णो देवी को याद करते
हैं। इसके बाद मां चामुंडा, मां ब्रजेश्वरी, मां ज्वाला, माता चिंतापुर्णी, माता
नैना देवी, मां मनसा देवी, मां कालिका और माता शाकुम्भरी देवी का स्मरण करते हैं। उनमें
सबसे करुणामयी और ममतामयी माता शाकुम्भरी देवी हैं। ऐसी मान्यता है कि उनके स्मरण
मात्र से लोगों का पाप धूल जाता है।
अश्रुधारा से धरती की प्यास बुझाई
धार्मिक ग्रंथों खासकर देवी पुराण और विष्णु पुराण में माता शाकुम्भरी देवी की
कथा उद्धृत है। दुर्गा सप्तसती में भी इस कथा वर्णन मिलता है कि हिरण्याक्ष वंश का
राज था। उस वंश में रूरू नाम का एक राक्षस था। उसका एक बेटा था दुर्गम। वह दुर्गमासुर
के नाम से कुख्यात हुआ। मान्यता के अनुसार उसने हजारों साल तक तपस्या कर ब्रह्मा
को प्रसन्न कर लिया और वेदों पर कब्जा कर लिया। संसार की गतिविधि उल्टी-पलटी हो
गई। यज्ञादि बंद हो गए। ज्ञान-विज्ञान का मार्ग अवरुद्ध हो गया था। बादल बरसना बंद
कर दिया। नदियां सुख गईं। तालाब सुख गए। पेड़-पौधे झुलसने लगे। पूरी धरती पर
त्राहिमाम फैल गया। सैकड़ों साल तक आसमान से एक बूंद पानी नहीं टपका। मानव जाति का
विनाश होने लगा। देवताओं में भारी हलचल मच गई। दुर्गमासुर और देवताओं के बीच महायुद्ध
होने लगे। धनुषटंकार और गदों की आवाज से व्योम तक हिलने लगा था। द्यावापृथ्वी पर
दुर्गमासुर का अट्ठहास गूंज रहा था। देवताओं के पराजय से पृथ्वी से स्वर्ग तक
हाहाकार मच गया। देवताओं ने शिवालिक की पहाड़ियों में छुप गए थे। दुर्गमासुर ने
देवताओं के हर मार्ग को बंद कर दिया। अंत में देवताओं ने माता जगदंबा की स्तुति की
और इस सृष्टि को बचाने का अनुरोध किया। आयोनिजा महामाया पार्वती शिवालिक
पर्वतमालाओं के बीच प्रकट हुईं, जो जगदंबा की अद्भुत रूप है। यहां की दुर्दशा को
देखकर माता द्रवित हो गईं। उनकी आंखों से धारा बहने लगी। नदियां-तालाब हर जगह पानी
भरने लगा। इससे धरती की प्यास बुझी।
इसी खोह में माता का मंदिर है। |
शताक्षी देवी की आराधना
जब माता जगदंबा की आंखों से आंसुओं की धारा निकल रही थी, तब मां के शरीर पर सौ
नेत्र प्रकट हो गए थे। सौ नेत्रों के कारण माता शत नैना देवी कहलाईं। बाद में देवताओं
ने शत नैना देवी को शताक्षी देवी के रूप में पूजन किया। माता जब शताक्षी हो गईं तब
उनका स्वरूप सौम्य था। पुराणों के अनुसार माता चार भुजाओं के साथ कमल फूल पर आसीन
थी। तब उनके हाथों में धनुष के साथ शाक, फल और फूल भी थे। मान्यता है कि सालों तक
बारिश नहीं होने के कारण धरती से शाक-सब्जी ही विलुप्त हो गई थी। तब माता ने अपने
शरीर से कई तरह के शाक (साग) को उत्पन्न किया। जिसे खाकर लोग तृप्त हुए। इस कारण
माता शताक्षी देवी स्वयं शाकुम्भरी देवी ही हैं।
सिद्धपीठ है माता का मंदिर
शाकुम्भरी देवी की गणना प्रसिद्ध 51 शक्तिपीठों में होती है। मान्यता है कि
यहां सती का शीश गिरा था। इस कारण माता शाकुम्भरी के दर्शन से ही श्रद्धालु धन्य
हो जाते हैं। उनकी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। माता के गर्भगृह से उत्तर वीर
खेत है, जहां मां शाकुम्भरी देवी का दुर्गम राक्षस से भयंकर युद्ध हुआ। उसमें
दुर्गम की मौत हो जाती है। इस युद्ध में माता का अन्य भक्त भूरादेव का भी निधन हो
जाता है। मंदिर में मुख्य प्रतिमा के दाईं ओर भीमा और भ्रामरी हैं जबकि बाईं ओर
माता शताक्षी देवी की प्राचीन प्रतिमा है। इसके बीच गणेशजी भी विराजमान हैं। जब
हिमालय और शिवालिक क्षेत्रों में राक्षसों का राज हो गया था और ऋषि-मुनि का जीना
दुभर हो गया था तब माता जगदंबा ने भयंकर भीम रुप धारण कर दैत्यों का संहार किया।
उस रूप को भीमा देवी के नाम से जानते हैं। उसी तरह राक्षसों के अत्याचार से
देव-पत्नियों का सतीत्व खतरे में पड़ गया था तब माता ने भ्रमर का रूप धारण कर
राक्षसों का वध किया था।
माता के रक्षक पंच महादेव
दिलचस्प बात यह है कि यहां माता के रक्षक के रूप में पंच महादेव मंदिर स्थापित हैं, जिनमें
बड़केश्वर महादेव, इंद्रेश्वर महादेव,
तारकेश्वर महादेव, कमलेश्वर महादेव और बटुकेश्वर महादेव विराजमान हैं। माता के
रक्षक के रूप में मंदिर गर्भगृह से एक किलोमीटर पहले बेहट की ओर बाबा भूरादेव का
मंदिर अवस्थित है। मान्यता है कि बाबा भूरादेवजी के दर्शन के बाद ही माता के दर्शन
मान्य होंगे। प्रसाद के रूप में यहां सराल-साग, हलवा पूरी, फल-सब्जी, मिश्री-मेवे
और शाकाहारी भोजन भोग लगाए जाते हैं।
हजारों फीट पहाड़ियों से घिरा है माता का भवन
शिवालिक पर्वतमालाओं से माता शाकुम्भरी देवी का मंदिर घिरा है। उनकी ऊंचाई दो
से तीन हजार फीट तक है। इन पहाड़ियों पर औषधि पौधों के अलावा भारत में मिलनेवाला
हर तरह के पेड़-फौधे पाए जाते हैं। यहां जंगली जानवरों और पक्षियों की कई
प्रजातियां पाई जाती हैं। खासकर बंदर और लंगूर की प्रजातियां अधिक हैं। इसके साथ
हाथी, हिरण, चीतल , घोरल, तेंदुए, बाघ भी मिलते हैं। इनके अलावा कोबरा, अजगर,
छिपकलियों की प्रजातियां यहां मिलती हैं। यहां
से कुछ दूरी पर संहस्रा ठाकुर धाम है। वहां की प्राकृतिक आभा दर्शनीय है। वहां
गौतम ऋषि की गुफा ऐर सूर्यकुंड भी है। मंदिर के पास ही छिन्नमस्तिका देवी और मनसा
देवी का संयुक्त मंदिर है।
तेल से खाना बना तो लग जाती है आग
दिलचस्प बात यह कि मंदिर परिक्षेत्र
में किसी दुकान में खाद्य पदार्थ तेल से नहीं बनता है। यदि कोई भूलवश तेल से खाद्य
पदार्थ बना लिया तो दुकान में आग लग जाती थी। इस कारण हर प्रकार के खाद्य पदार्थ
घी में बनाए जाते हैं। वहां पूजा करने के
बाद लोग कढ़ी-चावल ग्रहण करते हैं।
नवरात्र पर हजारों की लगती है भीड़
सभी मनोकामनाएं पूर्ण करनेवाली शाकुम्भरी देवी ने नवरात्र
के समय नौ दिनों तक अपनी आंखों से अश्रु प्रवाहित कर सृष्टि को बचाया था। इस कारण
नवरात्र के समय वहां प्रतिदिन 15 से 20 हजार श्रद्धालु पहुंचते हैं। ऐसा सिर्फ
शारदीय नवरात्र पर नहीं होता है बल्कि चैत्र नवरात्र के समय भी भारी संख्या में
लोग वहां पहुंते हैं। मां शाकुम्भरी देवी यहां कुलदेवी मी जाती हैं। पश्चिमी
उत्तरप्रदेश से लेकर हरियाणा, पंजाब, उत्तराखंड और दक्षिणी हिमाचल प्रदेश के लोग
शाकुम्भरी माता को कुलदेवी के रूप में पूजते हैं। वर्तमान में वहां राणा परिवार के
पुरखों की समाधि स्थल है। बताया जाता है कि वह राणा परिवार की कुलदेवी हैं। इस
कारण मंदिर और मेले पर राणा परिवार का कब्जा है। मंदिर और आसपास का विकास रुका हुआ
है।
शाकुम्भरी देवी में वन विभाग का पार्क |
शाकुम्भरी देवी परिक्षेत्र में विकास की जरूरत
बड़ी संख्या में लोगों के पहुंचने के बावजूद विकास नहीं
किया गया है। वहा रात में रुकने क्या दिन में स्नान करने की भी व्यवस्था नहीं है।
जो स्नान ध्यान कर श्रद्धालु माता का दर्शन करे। यदि किसी यात्री को वहां पूजन
करने में लेट हो जाए तो रुकने की कोई व्यवस्था नहीं है। मेरा मानना है कि ऐसा
सिर्फ एक परिवार के हाथ में व्यवस्था रहने के कारण हुआ। आपको ताजुब होगा कि बाबा
भूरेदेव के बाद करीब एक किलोमीटर लोगों को खोह (बरसाती नदी) में होकर जाना पड़ता
है। उसी नदी में वाहनों का स्टैंड है। उसी नदी में मेला लगता है। हर साल बाढ़ के
कारण भारी नुकसान होता है फिर भी किसी को चिंता नहीं होती। उसमें माल के साथ जान
का भी खतरा रहता है।
राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से 190 किलोमीटर की दूरी पर यह
स्थल अवस्थित है। सीधे हाईवे से जुड़ा हुआ है।
थोड़ी सुविधा प्रदान कर दी जाए तो पर्यटन के लिहाज से भी शानदार हो जाएगा।
वह पूरा क्षेत्र वन विभाग के पास है। वन विभाग का वहां एक डाक बंगला भी है। आपको
ताजुब होगा कि महाभारत काल में पांडवों ने यहां महादेव मंदिरों को बनवाया था। इस
कारण शाकुम्भरी देवी को प्रथम तीर्थस्थल माना जाता है।
- तरुण कुमार कंचन