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Wednesday 29 September 2021

शाकुम्भरी देवी : सबसे पहला तीर्थस्थल और सुविधाएं ...(Shakumbri Devise: The First Trusted Substance and...)

 

माता शाकुम्भरी देवी

 कोरोना काल के लॉकडाउन के बाद इस नवरात्र में कहीं घूमने का प्लान कर रहे हैं तो प्रकृतिप्रेमी और भगवान में श्रद्धा रखनेवालों के लिए सहारनपुर के शाकुम्भरी देवी धाम स्वर्ग के समान है। यहां प्रकृति की रमणीयता, मनोहर-अलोकिक छटा नैसर्गिक है। पर दुख इस बात की है कि सबसे पुराना तीर्थस्थल होने के बावजूद मानव सुलभ सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं।

करुणामयी माता शाकुम्भरी देवी

सनातनी मान्यताओं के अनुसार कुल नौ देवियां हैं जिन्होंने इस पृथ्वी को सुकुन का ग्रह बनाया है। यहां मानव से लेकर छोटे-बड़े जीव-जन्तुओं का पालन होता है। सभी मुदित रहते हैं। जब-जब पृथ्वी पर किसी प्रकार की आपदा आई है तब-तब माता विभिन्न रूपों में आकर लोगों को त्राण दिया है। जब हम नौ दैवीय यात्रा की बात करते हैं तो सबसे पहले माता वैष्णो देवी को याद करते हैं। इसके बाद मां चामुंडा, मां ब्रजेश्वरी, मां ज्वाला, माता चिंतापुर्णी, माता नैना देवी, मां मनसा देवी, मां कालिका और माता शाकुम्भरी देवी का स्मरण करते हैं। उनमें सबसे करुणामयी और ममतामयी माता शाकुम्भरी देवी हैं। ऐसी मान्यता है कि उनके स्मरण मात्र से लोगों का पाप धूल जाता है।

 

 अश्रुधारा से धरती की प्यास बुझाई

धार्मिक ग्रंथों खासकर देवी पुराण और विष्णु पुराण में माता शाकुम्भरी देवी की कथा उद्धृत है। दुर्गा सप्तसती में भी इस कथा वर्णन मिलता है कि हिरण्याक्ष वंश का राज था। उस वंश में रूरू नाम का एक राक्षस था। उसका एक बेटा था दुर्गम। वह दुर्गमासुर के नाम से कुख्यात हुआ। मान्यता के अनुसार उसने हजारों साल तक तपस्या कर ब्रह्मा को प्रसन्न कर लिया और वेदों पर कब्जा कर लिया। संसार की गतिविधि उल्टी-पलटी हो गई। यज्ञादि बंद हो गए। ज्ञान-विज्ञान का मार्ग अवरुद्ध हो गया था। बादल बरसना बंद कर दिया। नदियां सुख गईं। तालाब सुख गए। पेड़-पौधे झुलसने लगे। पूरी धरती पर त्राहिमाम फैल गया। सैकड़ों साल तक आसमान से एक बूंद पानी नहीं टपका। मानव जाति का विनाश होने लगा। देवताओं में भारी हलचल मच गई। दुर्गमासुर और देवताओं के बीच महायुद्ध होने लगे। धनुषटंकार और गदों की आवाज से व्योम तक हिलने लगा था। द्यावापृथ्वी पर दुर्गमासुर का अट्ठहास गूंज रहा था। देवताओं के पराजय से पृथ्वी से स्वर्ग तक हाहाकार मच गया। देवताओं ने शिवालिक की पहाड़ियों में छुप गए थे। दुर्गमासुर ने देवताओं के हर मार्ग को बंद कर दिया। अंत में देवताओं ने माता जगदंबा की स्तुति की और इस सृष्टि को बचाने का अनुरोध किया। आयोनिजा महामाया पार्वती शिवालिक पर्वतमालाओं के बीच प्रकट हुईं, जो जगदंबा की अद्भुत रूप है। यहां की दुर्दशा को देखकर माता द्रवित हो गईं। उनकी आंखों से धारा बहने लगी। नदियां-तालाब हर जगह पानी भरने लगा। इससे धरती की प्यास बुझी।

 

इसी खोह में माता का मंदिर है।

शताक्षी देवी की आराधना

जब माता जगदंबा की आंखों से आंसुओं की धारा निकल रही थी, तब मां के शरीर पर सौ नेत्र प्रकट हो गए थे। सौ नेत्रों के कारण माता शत नैना देवी कहलाईं। बाद में देवताओं ने शत नैना देवी को शताक्षी देवी के रूप में पूजन किया। माता जब शताक्षी हो गईं तब उनका स्वरूप सौम्य था। पुराणों के अनुसार माता चार भुजाओं के साथ कमल फूल पर आसीन थी। तब उनके हाथों में धनुष के साथ शाक, फल और फूल भी थे। मान्यता है कि सालों तक बारिश नहीं होने के कारण धरती से शाक-सब्जी ही विलुप्त हो गई थी। तब माता ने अपने शरीर से कई तरह के शाक (साग) को उत्पन्न किया। जिसे खाकर लोग तृप्त हुए। इस कारण माता शताक्षी देवी स्वयं शाकुम्भरी देवी ही हैं।

सिद्धपीठ है माता का मंदिर

शाकुम्भरी देवी की गणना प्रसिद्ध 51 शक्तिपीठों में होती है। मान्यता है कि यहां सती का शीश गिरा था। इस कारण माता शाकुम्भरी के दर्शन से ही श्रद्धालु धन्य हो जाते हैं। उनकी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। माता के गर्भगृह से उत्तर वीर खेत है, जहां मां शाकुम्भरी देवी का दुर्गम राक्षस से भयंकर युद्ध हुआ। उसमें दुर्गम की मौत हो जाती है। इस युद्ध में माता का अन्य भक्त भूरादेव का भी निधन हो जाता है। मंदिर में मुख्य प्रतिमा के दाईं ओर भीमा और भ्रामरी हैं जबकि बाईं ओर माता शताक्षी देवी की प्राचीन प्रतिमा है। इसके बीच गणेशजी भी विराजमान हैं। जब हिमालय और शिवालिक क्षेत्रों में राक्षसों का राज हो गया था और ऋषि-मुनि का जीना दुभर हो गया था तब माता जगदंबा ने भयंकर भीम रुप धारण कर दैत्यों का संहार किया। उस रूप को भीमा देवी के नाम से जानते हैं। उसी तरह राक्षसों के अत्याचार से देव-पत्नियों का सतीत्व खतरे में पड़ गया था तब माता ने भ्रमर का रूप धारण कर राक्षसों का वध किया था।

माता के रक्षक पंच महादेव

दिलचस्प बात यह है कि यहां माता के रक्षक के रूप में पंच महादेव मंदिर स्थापित हैं, जिनमें बड़केश्वर महादेव,  इंद्रेश्वर महादेव, तारकेश्वर महादेव, कमलेश्वर महादेव और बटुकेश्वर महादेव विराजमान हैं। माता के रक्षक के रूप में मंदिर गर्भगृह से एक किलोमीटर पहले बेहट की ओर बाबा भूरादेव का मंदिर अवस्थित है। मान्यता है कि बाबा भूरादेवजी के दर्शन के बाद ही माता के दर्शन मान्य होंगे। प्रसाद के रूप में यहां सराल-साग, हलवा पूरी, फल-सब्जी, मिश्री-मेवे और शाकाहारी भोजन भोग लगाए जाते हैं।

हजारों फीट पहाड़ियों से घिरा है माता का भवन

शिवालिक पर्वतमालाओं से माता शाकुम्भरी देवी का मंदिर घिरा है। उनकी ऊंचाई दो से तीन हजार फीट तक है। इन पहाड़ियों पर औषधि पौधों के अलावा भारत में मिलनेवाला हर तरह के पेड़-फौधे पाए जाते हैं। यहां जंगली जानवरों और पक्षियों की कई प्रजातियां पाई जाती हैं। खासकर बंदर और लंगूर की प्रजातियां अधिक हैं। इसके साथ हाथी, हिरण, चीतल , घोरल, तेंदुए, बाघ भी मिलते हैं। इनके अलावा कोबरा, अजगर, छिपकलियों की प्रजातियां यहां मिलती हैं।  यहां से कुछ दूरी पर संहस्रा ठाकुर धाम है। वहां की प्राकृतिक आभा दर्शनीय है। वहां गौतम ऋषि की गुफा ऐर सूर्यकुंड भी है। मंदिर के पास ही छिन्नमस्तिका देवी और मनसा देवी का संयुक्त मंदिर है।

तेल से खाना बना तो लग जाती है आग

 दिलचस्प बात यह कि मंदिर परिक्षेत्र में किसी दुकान में खाद्य पदार्थ तेल से नहीं बनता है। यदि कोई भूलवश तेल से खाद्य पदार्थ बना लिया तो दुकान में आग लग जाती थी। इस कारण हर प्रकार के खाद्य पदार्थ घी में बनाए जाते हैं।  वहां पूजा करने के बाद लोग कढ़ी-चावल ग्रहण करते हैं।

 नवरात्र पर हजारों की लगती है भीड़

सभी मनोकामनाएं पूर्ण करनेवाली शाकुम्भरी देवी ने नवरात्र के समय नौ दिनों तक अपनी आंखों से अश्रु प्रवाहित कर सृष्टि को बचाया था। इस कारण नवरात्र के समय वहां प्रतिदिन 15 से 20 हजार श्रद्धालु पहुंचते हैं। ऐसा सिर्फ शारदीय नवरात्र पर नहीं होता है बल्कि चैत्र नवरात्र के समय भी भारी संख्या में लोग वहां पहुंते हैं। मां शाकुम्भरी देवी यहां कुलदेवी मी जाती हैं। पश्चिमी उत्तरप्रदेश से लेकर हरियाणा, पंजाब, उत्तराखंड और दक्षिणी हिमाचल प्रदेश के लोग शाकुम्भरी माता को कुलदेवी के रूप में पूजते हैं। वर्तमान में वहां राणा परिवार के पुरखों की समाधि स्थल है। बताया जाता है कि वह राणा परिवार की कुलदेवी हैं। इस कारण मंदिर और मेले पर राणा परिवार का कब्जा है। मंदिर और आसपास का विकास रुका हुआ है।

शाकुम्भरी देवी में वन विभाग का पार्क


शाकुम्भरी देवी परिक्षेत्र में विकास की जरूरत

बड़ी संख्या में लोगों के पहुंचने के बावजूद विकास नहीं किया गया है। वहा रात में रुकने क्या दिन में स्नान करने की भी व्यवस्था नहीं है। जो स्नान ध्यान कर श्रद्धालु माता का दर्शन करे। यदि किसी यात्री को वहां पूजन करने में लेट हो जाए तो रुकने की कोई व्यवस्था नहीं है। मेरा मानना है कि ऐसा सिर्फ एक परिवार के हाथ में व्यवस्था रहने के कारण हुआ। आपको ताजुब होगा कि बाबा भूरेदेव के बाद करीब एक किलोमीटर लोगों को खोह (बरसाती नदी) में होकर जाना पड़ता है। उसी नदी में वाहनों का स्टैंड है। उसी नदी में मेला लगता है। हर साल बाढ़ के कारण भारी नुकसान होता है फिर भी किसी को चिंता नहीं होती। उसमें माल के साथ जान का भी खतरा रहता है।

राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से 190 किलोमीटर की दूरी पर यह स्थल अवस्थित है। सीधे हाईवे से जुड़ा हुआ है।  थोड़ी सुविधा प्रदान कर दी जाए तो पर्यटन के लिहाज से भी शानदार हो जाएगा। वह पूरा क्षेत्र वन विभाग के पास है। वन विभाग का वहां एक डाक बंगला भी है। आपको ताजुब होगा कि महाभारत काल में पांडवों ने यहां महादेव मंदिरों को बनवाया था। इस कारण शाकुम्भरी देवी को प्रथम तीर्थस्थल माना जाता है।

- तरुण कुमार कंचन

 

Monday 20 September 2021

मेरठ में जब परंपरा तोड़ कर विवाहित बेटी के सिर पर बांधी रस्म की पगड़ी (In Meerut, when the ritual turban was tied on the head of the married daughter by breaking the tradition)

रस्म पकड़ी के बाद आशीर्वाद लेतीं उर्वशी

 

न, बान और शान की प्रतीक पगड़ी जिम्मेदारियों का भी अहसास कराता है। खासकर तब जब पिता के अवसान पर रस्म की पगड़ी बांधी जाती है। मेरठ में रुंधे गले एक बेटी ने पिता के रस्म की पग़ड़ी अपने सिर बांधी। हालांकि अब यह नई बात नहीं रही। नीचे कुछ उदाहरण देखते हैं फिर समझते हैं कि अन्य मामलों से मेरठ का यह वाकया अलग कैसे है।

  • अगस्त 2012 की बात है। जयपुर में ज्योति नाम की एक बेटी ने पिता की पगड़ी अपने सिर ले ली। ज्योति अपने माता-पिता की अकेली औलाद है।
  • नवंबर 2016 में मेरठ में ऐसी ही एक घटना हुई। आकाशवाणी दिल्ली में मेरठ के नीरज गोयल डिप्टी डायरेक्टर थे। कोई 46 वर्ष उनकी अवस्था रही होगी। तब मेरठ के रोहटा रोड पर गगन एन्क्लेव के सामने सड़क हादसे में उनकी मौत हो गई थी। उस समय उन्हें दो बेटियां थीं। बड़ी बेटी रितिका 11वीं में पढ़ती थी। उसे ही जिम्मेदारियों से भरी हुई रस्म पगड़ी बांध दी गई थी।
  • नवंबर 2020 की घटना है। एक व्यक्ति का सड़क हादसे में निधन हो जाता है। उन्हें कोई बेटा नहीं था। उन्हें चार पुत्रियां थीं। चारों बेटियों ने मिलकर पिता की अर्थी को कंधा दिया। अंतिम संस्कार करवाया। सभी रस्मों को पूरा किया। अंत में जब रस्म पगड़ी की बारी आई तो पुरुष की खोज होने लगी। इसी बीच बड़ी बेटी सीमा मारवाल रस्म पगड़ी के लिए आगे बढ़ी। नाते-रिश्तदारों ने उसे हंसी-खुशी पिता की पगड़ी बंधवा दी।
  • मार्च 2021 की बात है। राजस्थान के सीकर जिले में श्रीमाधोपुर में बेटी को रस्म की पगड़ी बांधी गई थी। सड़क हादसे में एक व्यक्ति का निधन  हो गया था। उन्हें चार बेटियां थीं। उनमें सबसे बड़ी बेटी सुमन को रस्म पगड़ी बांधी गई थी।
  • मई 2021 में सीकर के दांतारामगढ़ में भंवर लाल का निधन हो गया था। उन्हें तीन पुत्रियां थीं। कोई बेटा नहीं था। इस कारण संस्कार के सारे काम बेटियों को करना पड़ा। अंत में जिम्मेदारियों की रस्म पगड़ी बड़ी बेटी पिंकी ने बांधी।

क्त कुछ दृष्टांत हमारे सामने हैं। जो बताता है कि बेटियां भी जिम्मेदारों का बोझ उठा सकती है। हर विषम परिस्थितियों से लड़ सकती है। आगे बढ़ कर बड़ी से बड़ी जिम्मेदारी को पूर्ण कर सकती है। मेरठ में आज जो वाकया हुअ है वह उक्त उदाहरणों से अलग है।    

 

भाइयों के रहते हुए भी बहन ने बांधी पिता की पगड़ी

पथौली सरूरपुर के रहनेवाले शिक्षक और किसान हरेंद्र सिंह की आज तेरहवीं थी। सम्प्रति हरेंद्र सिंह का परिवार मेरठ स्थित तुलसी कॉलोनी में रहता है। हरेंद्र सिंह को तीन बेटे और दो बेटियां हैं।  परिवार शिक्षित और सम्पन्न है। हरेंद्र सिंह को दो बेटियां उर्वशी और एश्वर्या हैं जबकि तीन बेटे विकास, वरुण और विवेक हैं। उर्वशी चौधरी मेरठ की जानी-मानी एडवोकेट और समाज सेविका हैं और ऐश्वर्या प्रधानाचार्य हैं। एश्वर्या छोटी बहन है। विकास, वरुण और विवेक तीनों छोटे हैं और शिक्षक हैं। यह परिवार प्रगतिशील है। तीनों भाइयों ने पिता की तेरहवीं पर अपनी बड़ी बहन उर्वशी के सिर पर रस्म की पगड़ी बांधी और घर का मुखिया बनाया। पश्चिमी यूपी में रुढ़ीवादी समाज होते हुए भी यह परिवार क्रांतिकारी फैसला लिया। मान्यता है कि बेटियों की शादी होने के बाद उसका कुल और गोत्र अलग हो जाता है।  

अपने फैसले से खुश है परिवार

हरेंद्र सिंह के निधन के बाद परिवार में मुखिया का चुनाव होना था। नाते-रिश्तेदारों और ग्रामीणों को उम्मीद थी कि हरेंद्र सिंह के तीन बेटों में से किसी एक के सिर पिता की पगड़ी बांधी जाएगी। आज जब पितृ पक्ष का पहला दिन चल रहा थ तो हरेंद्र सिंह के घर पर इतिहास रचा जा रहा था। सनातनी मान्यताओं के अनुसार सोलह संस्कारों में से अंतिम संस्कार तेरहवीं में रस्म पगड़ी का वक्त आया तो पूरे परिवार ने बदलाव की पहल की। घर की बड़ी बेटी उर्वशी चौधरी को परिवार का मुखिया घोषित करते हुए उनके सिर पर पिता की पगड़ी बांधी। इस मौके पर चाचा विजेंद्र पाल सिंह, जितेंद्र सिंह, फूफा निंरजन शास्त्री, रामपाल मांडी, जयविंदर रावत, रणधीर शास्त्री, एसके शर्मा, अंकुश चौधरी और गांव के कई गणमान्य लोग उपस्थित थे। पुरोहित मंत्रोच्चार कर रह रहे थे। बड़े-बुजुर्ग आशीर्वाद दे रहे थे और तीनों भाई बड़ी बहन के सिर पर जिम्मेदारियों की पगड़ी बांध रहे थे। माहौल गमगीन था पर समय परिवर्तन का गवाह भी बन रहा था।

बेटियां बेटों से कम नहीं है

जब संस्कार में बदलाव हो रहा था।  कई ग्रामीण हस्तियां और रिश्तेदार उस वक्त वहां मौजूद थे। प्रसिद्ध लेखक ओमवीर तोमर ने कहा कि हरेंद्र सिंह का परिवार बेटे और बेटी में फर्क नहीं करता। उन्होंने इस बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि ऐसा ही समाज में होना चाहिए।

उत्तरदायित्व की प्रतीक पगड़ी

पगड़ी उसी व्यक्ति को सौंपा जाता है जो परिवार का मुखिया होता है। यह सम्मान का भी प्रतीक है और उत्तरदायित्व का भी। जब किसी परिवार में मुख्य व्यकित का निधन हो जाता है तो किसी पुरुष सदस्य के सिर पर पगड़ी बांधी जाती है।

पति और ससुराल से उर्वशी को मिला साथ

उर्वशी ने बताया कि उनके पिता ने कभी भी बेटा और बेटी में फर्क नहीं किया। दोनों को आगे बढ़ने के लिए बराबर का मौका दिया। हम बचपन से ही इस संस्कार में बढ़े हैं। पिताजी ने हमेशा हमारी पढ़ाई-लिखाई पर जोर दिया। संयोग अच्छा रहा कि शादी के बाद पति ने भी उन्हें हर फैसले में साथ दिया। अब ससुराल वालों से भी हर काम में पूरा समर्थन मिलता है।

शास्त्र बेटे-बेटियों में फर्क नहीं करता

जयपुर में बेटी को रस्म पगड़ी पहनने के बाद यह विवाद चला था कि श्राद्धकर्म पुरुषों को करना चाहिए। इस कारण रस्म पगड़ी पर भी बेटों का अधिकार है। तभी जयपुर के विद्वान केके शर्मा ने स्पष्ट कर दिया था कि किसी ग्रंथ में ऐसा नहीं है कि सिर्फ बेटा ही श्राद्धकर्म करेगा। शास्तों में कहीं भी बेटे और बेटियों में विभेद नहीं किया गया है। इस कारण पिता की रस्म पगड़ी पर बेटियों का भी पूरा है।

Monday 13 September 2021

गांव में सुरंग एक और चर्चाएं अनेक

लुहारी गांव में सुरंग

पश्चिमी उत्तरप्रदेश में एक गांव है लुहारी। यह गांव हापुड़ जिले में पड़ता है। वहां बारिश के कारण जमीन धंसने से एक सुरंग बन गया। इसकी सूचना फैलते ही चारों ओर सनसनी फैल गई। इसका मुख्य कारण यह है कि यह क्षेत्र महाभारत कालीन सम्पदा से भरा पड़ा है। बगल में गढ़मुक्तेश्वर धाम है, जहाँ गंगा की पवित्र धारा अनवरत बहती रहती है। यहीं भगवान परशुराम ने तपस्या की थी और कांवड़ यात्रा की शुरुआत की थी।


चर्चाओं के साथ अफवाह भी बढ़ी
रविवार को जब लुहारी गांव में सुरंग मिलने की बात सामने आई तो अफवाह भी साथ ले आई। हुआ कुछ इस प्रकार, लुहारी गांव में तेज बारिश होने पर घर में पानी घुस गया तथा जमीन धंस गई। वहाँ सुरंग बन गई । इसके बाद चर्चाओं का दौरे शरू हो गया। ग्रामीणों में से किसी ने कहा कि खजाना निकला है तो किसी ने कहा कि बारिश से गहरा गडढ़ा बन गया। वहां पहले कुआं होगा। चर्चा यहां तक चली कि यह सुरंग में जाकर खुलती होगी।

पुलिस भी जांच को पहुंची
ग्रामीणों की सूचना पर पुलिस मौके पर पहुंच गई। बताया गया कि जांच पड़ताल कर पुरातन विभाग को सूचना दे दी। लोगों को वहां यथा स्थिति बनाए रखने के लिए कहा गया। इस बीच जिला प्रशासन ने पुरातन विभाग को बुलाकर जांच कराने के आदेश दिया है।

12-15 फुट की सुरंग
सूचना के अनुसार बहादुरगढ़ थाना क्षेत्र के गांव लुहारी निवासी भगवत सिंह का कई साल पहले गरीबी के कारण बाहर चले गए। उन्हें दो बेटे हैं। वे भी वे भी बाहर ही रहते हैं। शनिवार को घनघोर बारिश होने पर घर में पानी घुस गया। गहरे स्थान पर मिटटी के बैठने पर 12-15 फुट धरती के धंसने पर सुरंग की तरह बन गई। गांव में सुरंग की खबर पर सनसनी फैल गई। अब हकीकत क्या है। इसका खुलासा जांच के बाद होगी। जिला प्रशासन की जांच का आदेश दिया है।


अपशगुन माने जाते थे जगतगुरु रामभद्राचार्य Jagatguru Rambhadracharya was considered a bad omen

जो बालक बचपन में अपशगुन बन गया था। शादी विवाह में भी उन्हें शामिल नहीं किया जाता था। अपने लोग भी साथ नहीं ले जाते थे। आज पूरे दे...