अर्घ्य दान |
तालाब पर डाला ले जाते |
सूर्योपासना का व्रत है छठ । सूर्य की ऊर्जा को स्वयं में जागृत करने का व्रत है छठ।
श्रद्धा का परम निवेदन है छठ। एकनिष्ठ जीवन की विराटता का आवाहन है छठ।
इस कारण आध्यात्मिकता के साथ सांसारिकता भी है छठ।
वेद और आर्य संस्कृति के साथ प्रकृति से भी जुड़ा है छठ पर्व।
इस कारण छठ के हर रंग का वर्णन इसके लोक गीतों में मिलते है।
कामना
इस अवसर पर छठ मइया से मुख्यतः संतान प्राप्ति, रोग मुक्ति और सुख-सौभाग्य की कामना की जाती है।
परमानंद की अनुभूति
लोग कहते हैं छठ का अनुष्ठान कठोर होता है, पर व्रतियों को इसमें परमानंद की अनुभूति होती है।
छठ पर्व चार दिनों तक चलनेवाला है। व्रती को हर दिन अलग-अलग नियमों का पालन करना पड़ता है।
इनमें पवित्र स्नान, उपवास, ठेकुआ-कसार का प्रसाद बनाना, पीने के पानी से दूर रहना, लंबे समय तक पानी में खड़ा होना और और अर्घ्य देना शामिल है।
इस बार छठ पर कोरोना का असर
इसके वाबजूद लोगों के बीच उत्साह कम नहीं है। जो जहां है वहीं छठ की तैयारी में जुटा है। कोरोना के कारण इस बार लोग अपने घरों में ही अर्घ्य की व्यवस्था कर रहे हैं।
अब जानते हैं शुभ मुहूर्त कब है
छठ को हिंदुओं का सबसे बड़े त्योहारों में गिना गया है। उत्तर भारत और खासतौर से बिहार, झारखंड और
पूर्वी यूपी में इस त्योहार को बेहद खास महत्व दिया जाता है।
पहला दिन यानी नहाय-खाय
छठ पूजा की शुरुआत कार्तिक शुक्ल चतुर्थी तिथि से होती है।
यह छठ पूजा का पहला दिन होता है, इस दिन को नहाय-खाय कहते हैं। उस दिन जो व्रत रखती हैं
उसे शुद्ध सात्विक विधि का पालन करना होता है। इस वर्ष नहाय-खाय 18 नवंबर बुधवार को है।
बिहार-झारखंड में लोग इस दिन कद्दू यानी लॉकी की सब्जी अनिवार्य रूप से खाते हैं। इस कारण इसे कद्दू-भात भी कहते हैं। इससे मन की पवित्रता के साथ शरीर भी स्वस्थ रहता है।
दूसरा दिन यानी लोहंडा और खरना
लोहंडा और खरना छठ पूजा का दूसरा दिन होता है। यह कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को होता है।
इस वर्ष लोहंडा और खरना 19 नवंबर गुरुवार को है। व्रती इस दिन सुबह से खरना तक एक बूंद पानी नहीं पीती है।
अब सवाल उठता है कि खरना क्या होता है। पंचमी को सूर्यास्त होने के बाद छठव्रती मिट्टी के चूल्हे पर आम की लकड़ी जलाकर भगवान भाष्कर के लिए भोग बनाती है।
इसके बाद सूर्यदेव का आवाहन करती हैं कि हम सब को स्वस्थ रखें ताकि कल आपका दर्शन हो।
इस अवसर पर खीर, रसिया यानी ईख के रस में बने चावल और फलों का भोग लगाया जाता है।
उसे खरना का प्रसाद कहते हैं। व्रती दिनभर उपवास के बाद उसे ही ग्रहण करती हैं।
आसपास के लोगों के बीच वितरण भी किया जाता है।
तीसरा दिन यानी संध्या अर्घ्य
छठ पूजा का मुख्य दिन कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को होता है। इस दिन ही छठ पूजा होती है। शाम को सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है।
इस साल संध्या अर्घ्य शुक्रवार 20 नवंबर को है। लोग अस्ताचलगामी सूर्य को कच्चे बांस के सूप से अर्ध्य देंगे।
दिन में अर्घ्य के लिए ठेकुआ और चावल के आटे का लड्डू बनाया जाता है।
इसके बाद अर्घ्य के लिए सूप को सजाया जाता है। इसमें नारियल, मौसमी फल के साथ गन्ना, अदरख और हल्दी के पौधे को भी रखा जाता है। इसके बाद घर के पुरुष उस सूप को डाले में रख कर नदी या तालाब के किनारे ले जाते हैं जहों अर्घ्य दिया जाता है।
व्रती नदी या तालाब में स्नान करके हाथ में सूप रख कर अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देती हैं। इसके बाद व्रती घाट से घर लौट आती हैं। उस रात वह पानी तक ग्रहण नहीं करेंगी। कुछ लोग घाट के किनारे ही रातभर रहते हैं।
चौथा दिन यानी सुबह का अर्घ्य
इसे हम पारण का दिन भी कहते हैं।
छठ पूजा का अंतिम दिन कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि होती है। जिस प्रकार शाम के अर्घ्य के लिए सूप तैयार किया जाता है।
उसी तरह सुबह के अर्घ्य के लिए सूप तैयार किया जाता है। इस दिन सूर्योदय के समय सूर्यदेव को अर्घ्य अर्पित किया जाता है। उसके बाद पारण कर व्रत को पूरा किया जाता है। पारण यानी 36 घंटे के बाद व्रती छठ का प्रसाद खाकर व्रत तोड़ती हैं। इस वर्ष छठ पूजा का सूर्योदय अर्घ्य तथा पारण शनिवार 21 नवंबर को होगा।
छठ पर्व के महत्व को समझा जाए तो इससे हमें कई संदेश मिलते हैं।
1. पर्यावरणविदों का दावा है कि छठ सबसे पर्यावरण-अनुकूल हिंदू त्योहार है। इसलिए प्रकृति से जुड़े रहो।
2. अस्ताचलगामी सूर्य की पूजा से हमें यह संदेश मिलता है कि सब समान है। जीवन में भेदभाव का कोई स्थान नहीं है।
3. बेटा-बेटी सब समान हैं। लोकगीतों में इन संदेशों का विशद वर्ण है।
व्रती छठ मईया से मांगती है कि .रुनकी-झुनकी बेटी दियह..
इसी तरह दूसरा गीत है -मां बेटा त. दियहल लेकिन लक्ष्मी दे के करदे अंगनमा उधार है...
इसकी शुरुआत कहां और कैसे हुई
मान्यता है की देव माता अदिति ने सर्वप्रथम छठ पूजा की थी। एक कथा के अनुसार प्रथम देवासुर संग्राम में जब असुरों के हाथों देवता हार गये थे, तब देव माता अदिति ने तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति के लिए देवारण्य के देव, वर्तमान बिहार के औरंगाबाद जिले में स्थित सूर्य मंदिर में छठी मैया की आराधना की थी। तब प्रसन्न होकर छठी मैया ने उन्हें सर्वगुण संपन्न तेजस्वी पुत्र होने का वरदान दिया था। इसके बाद अदिति के पुत्र हुए त्रिदेव रूप आदित्य भगवान, जिन्होंने असुरों पर देवताओं को विजय दिलायी।
एक प्रचलित कथा है कि जब पांडव अपना सारा राजपाट जुए में हार गये, तब श्रीकृष्ण द्वारा बताये जाने पर द्रौपदी ने छठ व्रत रखा। तब उनकी मनोकामनाएँ पूरी हुईं तथा पांडवों को राजपाट वापस मिला था।
लोक परम्परा के अनुसार सूर्यदेव और छठी मइया का संबंध भाई-बहन का है। लोक मातृका षष्ठी की पहली पूजा सूर्य ने ही की थी। जब छठी मइया हैं तो सूर्य की पूजा क्यों
सूर्य आराधना का पर्व
छठ पर्व मूलतः सूर्य की आराधना का पर्व है, जिसे हिन्दू धर्म में विशेष स्थान प्राप्त है।
सूर्य की शक्तियों का मुख्य श्रोत उनकी पत्नी ऊषा और प्रत्यूषा हैं। प्रात:काल में सूर्य की पहली किरण (ऊषा) और सायंकाल में सूर्य की अंतिम किरण (प्रत्यूषा) को अर्घ्य देकर दोनों का नमन किया जाता है। लोग उनसे तेज प्राप्त करते हैं।
परंपरा
भारत में सूर्य उपासना ऋगवेद काल से होती आ रही है। सूर्य और इसकी उपासना की चर्चा विष्णु पुराण, भगवत पुराण, ब्रह्मा वैवर्त पुराण आदि में गयी है।
मध्य काल तक छठ सूर्योपासना के व्यवस्थित पर्व के रूप में प्रतिष्ठित हो गया, जो अभी तक चला आ रहा है।
छठ का सामाजिक और सांस्कृतिक जोड़ महत्वपूर्ण है।
इसका सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष इसकी सादगी, पवित्रता और लोकपक्ष है। भक्ति और आध्यात्म से परिपूर्ण इस पर्व में बाँस निर्मित सूप, टोकरी, मिट्टी के बर्त्तनों, गन्ने का रस, गुड़, चावल और गेहूँ से निर्मित प्रसाद
और मधुर लोकगीतों से युक्त होकर लोक जीवन की भरपूर मिठास का प्रसार होता है।
छठ के लोकगीत ही मंत्र
गीत में ही वे सब पिरो दिए गए हैं, जो इस पर्व का उद्देश्य है। इसलिए छठ के विभिन्न अवसरों पर जैसे प्रसाद बनाते समय, खरना के समय, अर्घ्य देने के लिए जाते हुए, अर्घ्य दान के समय और
घाट से घर लौटते समय अनेक भक्ति-भाव से पूर्ण लोकगीत गाये जाते हैं।
'केलवा जे फरेला घवद से, ओह पर सुगा मेड़राय
काँच ही बाँस के बहंगिया, बहंगी लचकत जाए'
सेविले चरन तोहार हे छठी मइया। महिमा तोहर अपार।
उगु न सुरुज देव भइलो अरग के बेर।
निंदिया के मातल सुरुज अँखियो न खोले हे।
हम करेली छठ बरतिया से उनखे लागी।