किसानों के समर्थन में अवार्ड लौटाने की घोषणा करते खिलाड़ी
भारत सरकार के नए कृषि कानूनों के खिलाफ देशभर के किसानों में उबाल है। एक पखवाड़ा होने को है और किसान खेतों को छोड़ सड़क पर हैं। अन्नदाता व्याकुल है। वे अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं। राजनीतिक पार्टियां उछल-कूद कर रही हैं और अपना भविष्य तलाश रही हैं। इसमें कोई गड़बड़ी नहीं है। दुखद यह है कि हमारे अन्नदाता खेतों के बाहर हैं। खरीफ के साथ रबी फसल भी खेतों में लहलहाने लगी है और देखनेवाला कोई नहीं है। गन्ने का पेराई सत्र चल रहा है। गन्ना खेतों में है। रस सूख रहा है। पंजाब में किसान ट्रेनों के परिचालन को बाधित कर रखा है। अब तक करोड़ों का वारा-न्यारा हो चुका है। इसके बाद 8 दिसंबर को किसानों का भारत बंद है।
यह सब एक अच्छे लोकतांत्रिक देश की खुबियां हैं। इस पर हमें गर्व है कि यहां के नागरिकों के पास यह अधिकार है कि अपनी चुनी सरकार के समक्ष नाराजगी और गु्स्सा जता सकते हैं। किसान भी यही कर रहे हैं। सरकार और हमारे अन्नदाता दोनों अपनी जगह से हिलने को तैयार नहीं हैं। किसान सड़क पर धूल फांक रहे हैं और सरकार बातचीत का प्लेटफॉर्म खोल रखा है। इसके बाद भी सुलह का रास्ता नहीं निकला। स्पष्ट है किसान आंदोलन शक और भ्रम के भंवर में फंस गया है। दोनों के बीच शब्दों का तालमेल नहीं है। किसान को कानून लिखित दस्तावेज चाहिए और सरकार आश्वासन का पुलिंदा थमा रही है।
भ्रम की स्थित यह है कि जिन बिलों को केंद्र सरकार किसानों के लिए वरदान बता रही है उन्हीं कानूनों के खिलाफ किसान सड़क पर हैं। किसानों को सबसे ज्यादा भय इस बात को लेकर है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की व्यवस्था कहीं खत्म न हो जाए। इसके लिए किसान सांवैधानिक व्यवस्था चाहते हैं। उनका कहना है कि डॉ स्वामीनाथन द्वारा सुझाए गए फॉर्मूले के मुताबिक उनकी फसलों का उचित और लाभकारी न्यूनतम समर्थन मूल्य प्राप्त हो। मंडी में उनके उत्पादन का भाव किसी भी कीमत पर समर्थन मूल्य से कम न हो। इसमें गड़बड़ी करनेवालों के खिलाफ दंड का प्रावधान भी हो। इसके साथ किसान सभी फसलों की शत-प्रतिशत सरकारी खरीद की गारंटी भी चाहते हैं।
कृषि कानून के माध्यम से सरकार ने किसानों को यह अधिकार दिया है कि वह अपनी उपज मंडी के बाहर भी बेच सकते हैं। स्पष्ट है कि मंडी के आढतियों के चंगुल से किसान को मुक्ति मिलेगी। दूसरी ओर किसानों को यहां शक है कि इस कानून से कृषि उपज मंडी समिति को खत्म कर दिया जाएगा। किसान बाजार में जाएंगे। साहूकारों और उद्यमियों के जाल में फंस जाएंगे। कृषि कार्य भी शिक्षा की तरह पैसेवालों के लिए ही संभव होगा।
किसानों की सबसे खराब स्थिति फसल बीमा को लेकर है। किसानों का आरोप है कि फसल बीमा के नाम पर किसानों से ठगी हो रही है। उन्हें कोई लाभ नहीं मिल रहा है बल्कि बीमा कम्पनी इसका लाभ उठा रही है। किसानों का कहना है कि फसल बीमा योजना में चोरी और आगजनी को भी शामिल किया जाए। प्रीमियम का भुगतान सरकार करे।
नए कानून में एक बिल कांट्रैक्ट फार्मिंग का है। इसके तहत किसान किसी विवाद को लेकर कोर्ट नहीं जा सकेंगे। कंपनियों और किसानों के बीच विवाद होने की स्थिति में एसडीएम का आदेश मान्य होगा। विवाद से संबंधित अपील जिलाधिकारी के यहां होगी। दूसरी ओर किसानों को डीएम और एसडीएम पर विश्वास नहीं है। उन्हें लगता है कि इन दोनों पदों पर बैठे लोग सरकार की कठपुतली की तरह होते हैं। वे लोग वही करेंगे जो वहां की सरकार चाहेगी। सरकार के लिए किसानों से ज्यादा महत्वपूर्ण कंपनियां होती हैं जो चुनाव लड़ने के लिए चंदा देती हैं।
किसानों का कहना है कि सरकार किसान हितैषी है तो किसानों को आत्महत्या से रोकने के लिए कोई कानून क्यों नहीं बनाती है। भारत की शर्मनाक स्थिति यह है कि सरकारी रिकार्ड के अनुसार 10 साल में तीन लाख से अधिक किसानों ने आत्महत्या की है। यह सिलसिला आज भी चल रहा है। आत्महत्या करनेवाले किसानों के परिवार के पुनर्वास के लिए सरकार क्या कर रही है। सरकार किसानों के लिए पेंशन देने पर क्यों नहीं सोच रही है। क्या इसके लिए कानून नहीं बन सकता है। 60 साल के बाद किसानों को कम से कम 5 हजार रुपए पेंशन की व्यवस्था हो।
-तरुण कुमार कंचन
शक और भ्रम को दूर करने की जिम्मेदारी का पालन करे सरकार। आप क्या सोचते हैं।
ReplyDelete